समरस
इंद्रधनुष उतरा
रंगों ने बादल बिखेरे
मोरपंखी बन झुमें
भीतर भीतर,
लज्जा का गाँव
गालों पर बस
हाया के मेले
सजने लगे
होठ कांपे कांपे,
तन बदन थिरके
सागर में उठी लहर
आँखों में पहरा उतरा
लज्जा का चुपके चुपके,
चली झुम के
मतवाली हवा हटिली
गोरी का घुंघट हटा
यहाँ वहाँ डोले डोले,
बोल होंठों से न फिसले
खामोशियों के
लग गये डेरे
तहस नहस तन का भूगोल
जज्बातों से खेले खेले,
यौवन का कोई
तार बज उठा
तमाम बंदिशों के
बाबजूद
उतरे स्वप्न में होले होले,
खुश की बदली
घिर आई मन के आंगन
मन मयूर कुहके
लगाये ठुमके ठुमके,
आज वावरी हो गई
मन ही मन मीरा
लगन लगी सांवरे
तेरे दर्शन दर्शन,
इस विरहन के
तपते मन पर छिड़क दें
अपने नैनों का मघुरस
में हो जाऊँ समरस समरस।
©A