लघुकथा... हम न रुके

 हम न रुके

“आज मौसम क्यों बदल गया जरा सी ठंडक के बाद तो सुकून मिला है”… रवि ने गर्मी से थोड़ी राहत मिली को महसूस करते हुए कहा।

“पता नहीं, प्रकृति को क्या हो रहा है, अपनी प्रवृत्तियों को भूलती जा रही है”…तपन हाथ से हवा करते हुए बोला।

“अरे वाह, इंसान अपना रंग गिरगिट की तरह बदलता है, तब तुम्हें फर्क नहीं पड़ता, प्रकृति ने रंग बदला तो शिकायत कर दी,”…रवि ने उलाहना देते हुए कहा।

“ऐसी बात नहीं, इंसान अपने को न बदले, पर समय ऐसा आ गया है कि वह चाह कर भी बदल नहीं पाता,”…उलझन भरे स्वर में तपन बोला।

“ऐसा क्यों ? पहले स्वयं पर पहल करो,”… रवि बोला।

“सदा पीछे रह जाने का डर जो बना रहता है,”…

“भौतिक सुख सब कुछ तो नहीं,”…. रवि ने ऐसे कहा मानो खुद को भी सुना रहा हो।

“चाह कर भी तो अपनी मन की नहीं कर पाते, चाहे हमें सुकून मिले,या न मिले, हम सीधे रास्ते चलना चाहते हैं तो क्या चलने दिया जाता है, हर सुख सुविधा संपन्नता घर में हो, उसके लिए आपको लगातार दौड़ना ही पड़ेगा, फिर चाहे अपने ही पीछे क्यों न छूट जाये, उस पर हमारी यह सोच, समझ, नैतिकता घर वालों को कबूल नहीं,”…. तपन ने ठंडी सांस भरकर कहा।

“सच कह रहे हो दोस्त, आज जब उम्र के दोराहे पर खड़े हैं तो लगता है कि हम ने किया क्या है, हम तो एक धूरी पर ही घूमते रह गये और जीवन समाप्ति की ओर आ गया, अब चाह कर भी हम वह समय नहीं ला सकते, जहाँ हम अपने नैतिक मूल्यों से जीना चाहते थे, और इसकी कसक तमाम उम्र रहेगी,”… रवि ने अफसोस भरी ठंडी सांस भरकर छोड़ी।

“एक बात है दोस्त जो बीत गया उसे जाने देते हैं, अब आगे का बचा जीवन, क्यों न हम अपने हिसाब से जी ले, सच कह रहा हूँ न, अब पूरा समय हम अपने पर दे, अपने आप को खुश करें और खुश रहें, क्या कहते हो,”..निराशा को खुशी और उत्साह की बैसाखी थमाते हुये तपन ने कहा।

“सच है दोस्त, जीना इसी का नाम है कि हम अपने होने को सार्थक कर दें, पिछला अब हम कभी नहीं दोहराएंगे और आगे कुछ अच्छा कर जाएंगे, दो ताली,”…. रवि ने अपना हाथ आगे कर दिया उसके चेहरे पर पुनः चल पड़ने का कौतूहल हिलौरें ले रहा है, अभी भी जीवन प्रवाहवान है इसके कण नजर आ रहे हैं।

दोनों ने एक दूसरे का हाथ मजबूत इसे थाम लिया जहाँ निराशा और पछतावा दम तोड़ गये और उत्साह और लगन ने दामन थाम लिया, जहाँ उम्र एक कोने में बैठी देखती रह गई।

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