लधुकथा

 

प्रतिमूर्ति

एक बूढ़ी अम्मा जर्जर शरीर लिए घर के सामने से गुजरते वक्त पैसे मांगने लगती, कभी बिना मांगे ही चली जाती है। बहुत दिनों से शकुन उन्हें देख रही है, जब कभी वह कुछ लेने अन्दर जाती, वह आगे बढ़ जाती, कई बार लगा शायद देखा नहीं होगा, लेकिन कभी जब रुकने का कहकर जाती, तो भी आगे बढ़ जाती, कभी आश्चर्य होता, तो कभी गुस्सा भी आ जाता।

“अम्मा, कभी आप पैसे मांगती हो और कभी नहीं, ऐसा क्यों ?” एक दिन उनसे शकुन ने पूछ लिया।

वह ठिठक गई, शकुन को देखती रही,

“बिटिया, जब मजदूरी नहीं मिलती, तब मांग लेती हूँ,”… चेहरे पर धकेली हुई मुस्कान उछाली।

“मैं, तो रोज ही देना चाहती हूँ, आप लेते ही नहीं,”…शकुन ने जानने की गरज से बोली।

“मेरा दिल जानता है, जब मैं भीख मांगती हूँ, कितना दुख होता है, क्या करूं, पेट की खातिर यह रास्ता अपनाना पड़ता है, जिस दिन मजदूरी मिलती है, उस दिन मैं इस काम को नहीं करती, सोचती हूँ, कुछ दिन ही सही मेहनत की खा लेती हूँ, सुकून मिलता है,”..वह गहरी सांस खिंचकर बोली।

उनके चेहरे का ओज और निखार आया है, जहाँ परम सुख है, तो वहीं एक कोने में मजबूरी का पंछी भी बैठा फड़फड़ा रहा है, पर इस समय परम संतोष उनके चेहरे पर दिव्यमान है।

अम्मा सुकून भरे धीमें कदमों से आगे बढ़ गई, अम्मा की कर्मठता से शकुन के सामने जीवन का एक नया पाठ खुल गया, कर्मठता की जिती जागती मुर्ति के दर्शन हुए हैं, शकुन का मन श्रद्धा से नत हो गया।

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