कहानी

 यह पन्द्रह दिन


एक जोरदार टक्कर और देवयानी सड़क पर, घुटने से बहते खून को देखकर घबरा गई, आसपास भीड़ जमा हो गई, थोड़ी देर में वह बेहोशी के आगोश में चली गई।

होश आया तो पूरे आठ दिन बाद, पैर पर प्लास्टर चढ़ा है, चालिस टांके लगे हैं, जाने कैसे यह दिन बच्चों ने निकाले होंगे, सोच कर ही देवयानी का कलेजा मुँह को आने लगा, दुर्घटना उसका पीछा ही नहीं छोड़ रही, कैसे ठीक होगी यह सोचकर ही घबराहट होने लगी।

पति राम का एक्सीडेंट भी तो उसी मोड़ के दूसरे चौराहे पर हो गया था,ओर वह असमय ही छोड़ गये, सारे रिश्तों को तब भी देख समझ लिया था, धुन सवार थी कि अपने बलबूते पर अपने बच्चों को पाल लेगी, उन विकट परिस्थितियों में उसने बच्चों के लिए सारे आँसू पी लिये थे, मन मजबूत करके नौकरी पर जाने लगी थी।

उस घाव से उबर भी नहीं पाई कि इस विपदा ने झंझौड़ दिया।
डॉक्टरों ने दो माह तक प्लास्टर चढ़ाये रखने को कहाँ है ।

आठ दिन तो नातेदारों ने सहानुभूति दिखाई, पंद्रह दिनों में सारे अपनों पर किए गए विश्वास की धज्जियाँ उड़ गई।

घर पर व्यवस्थित होते ही बच्चे अपने स्कूल जाने लगे , वैसे भी देवयानी की वजह से पढ़ाई का काफी हर्ज कर चुके हैं। अब घर में उसका पलंग, देवयानी और उसकी तन्हाई अक्सर आपस में ही बातें करते रहते हैं।

इन तन्हाइयों ने पूरे पिछले जीवन को मथ डाला, बार-बार राम की याद आती, तो वह अंदर से पिघलने लगती, अपने बारे में सोचती तो लगता पलंग पर वह ढेर के रूप में रह गई है, जिसके आसपास से बचते बचाते सारे रिश्ते निकल जाते हैं, हालांकि उसने कभी किसी से मदद न तो मांगी, न ही उम्मीद लगाई है।

इन पंद्रह दिनों में दृढ़ता से खड़ी उसकी विश्वास की इमारत को भरभराकर धाराशाही कर दिया है, अपनी इच्छा से वह हिल-डुल भी नहीं पा रही है, ऐसे में किसी बहुत ही अंतरंग साथी की आवश्यकता महसूस हो रही है, राम तो हर पल ही याद आ रहे हैं।

किसी सहारे को मन मचलने लगा है, एक जिद सी सवार होने लगी है, वह ऐसा साथी नहीं तलाश सकती, जो उसके सुख-दुख में साथ खड़ा हो, जिंदगी में अकेले हर परेशानी को झेलना आसान भी तो नहीं होता, कितना मर-मर के वह अपनी जिंदगी को जिये, उस पर औरत होने का हर वक्त लगाया गया ठप्पा, उसे अंदर तक कचौट देता है।

राम के जाने के बाद उसने इतने अपनों का नजरिया देखा और परखा है कि वह आश्चर्य में है, बहुत गहरे रिश्ते भी, कितने बेमानी और खोखले हो जाते हैं कि मौका मिलते ही औरत को किस तरह हासिल कर सके, इसके दांव पेंच लगाने से कोई भी रिश्ता चुकता नहीं है, देवयानी इन झंझावात से दो-दो हाथ कर ही रही थी कि यह दुर्घटना उसे फिर से उन्हीं खाइयों में धकेल लाई, जिन से बाहर निकलने का भरपूर प्रयास कर रही हैं।

मर कर जाने वाले तो मुक्ति पा लेते हैं, किंतु क्या यहाँ वाले हर पल मरते रहे ? यह कौन सी मानवीय संवेदना है, क्यों न मन को दृढ़ कर निर्णय ले कि यह कदम दृढ़ता से उठा ले।

पहली बार तो कुछ अपने लिए सोच पाने का विचार किया है, शादी तय की माता पिता ने, नौकरी को कहा पति ने, अपनी मर्जी से बच्चों की संख्या के बारे में भी निर्णय नहीं ले पाई, तो स्वाभाविक है यह पहला भूचाल तो लगेगा ही, इसको सुनते ही परिवार, समाज को बगावत का बिगुल सुनाई देने लगेंगा।

तीखे, घृणा भरे व्यंग्यों को सह पाना क्या उसके बस का है? फिर क्या करें ? कौन आज आ रहा है कि उसकी गृहस्थी सम्हाल ले, उसकी तन्हाई बाट ले, सभी का अपना घर संसार है, किसे किसकी सुध है, फिर क्यों न अपने बारे में वह स्वयं निर्णय लें ?

आज देवयानी की बहुत ही सुंदर विचारों वाली, उसकी दोस्त शांता आ रही है, देवयानी बहुत समय से मन बना रही थी इस विषय में वह शांता से चर्चा करें, दिमाग में तरह-तरह की योजनाएँ बन रही है और अपनी बात किस तरह उसके सामने रखे, इस पर वह मनन कर रही है।

देवयानी,शांता के आते ही अपना दुःख दर्द भूल जाती है, क्योंकि वह इतनी हंसमूख है कि कुछ देर को कोई भी होगा, अपना दर्द भूल जाएगा, वह वर्तमान में जीने और जीने देने में विश्वास करती है, और अगर खुद को यह लगता है कि समाज की इन बेड़ियों को नहीं झेल सकती तो तोड़ने में वह जरा भी नहीं झीझकती है।

“बात ऐसी है कि कहने में मुझे खुद ही शर्म आ रही है, जाने तुम क्या सोचों,”.. दिव्यानी ने संकोच से कहा।

“तुम कुछ मत सोचो, चलो बोल दो,”.. शांता अपने सदाबहार अंदाज में बोली।

“नहीं, रहने दो,”.. देवयानी में अभी भी खुलकर बात करने का साहस नहीं हो पा रहा है।

“अब नखरे न दिखा, चल फटाफट बोल,”.. शांता ने ऐसा दर्शाया कि कोई बहुत ऐसी बात नहीं है जो कहने में संकोच कर रही है।

“मैं, सोच रही थी कि….,” देवयानी फिर चुप हो गई।

“शादी करनी चाहिए,”… बात को पूरी करती हुई शांता बोली।

“हां,”देवयानी ने सहमति में गर्दन ही हलाई।

“इतनी सी बात बोलने में तेरा गला सूख रहा है, तो तेरी ससुराल वालों से कैसे निपटेगी ? समाज का सामना कैसे करेंगी ? देवयानी कुछ सोच जरा, हिम्मत ला अपने अंदर, कहीं कोई जरा जोर से बोल देगा तो तू अपना निर्णय तमाम उम्र के लिए टालने की कसम खा लेगी,”.. शांता एक ही सांस में बोल गई।

देवयानी कुछ नहीं बोली, आँखें भर आई, क्या करें अपने इस छोटे से दिल का, जो अब किसी को अपनी वजह से परेशान न करने की ठान चुका है।

निर्णय का यह कैसा दौर आया है कि यही दिल बगावत कर साथी की तलाश का हिमायती हो गया है, इस जग में पुनः सहारा चाहिए उसे, यही सोचकर आंचल से आँसू पूछ लिए, ताकि जिंदगी की तस्वीर धुंधली नजर न आए।

रिश्तेदार क्या कहेंगे, समाज क्या कहेगा, इसकी चिंता से देवयानी सर्वथा मुक्त हो चुकी है, खुद की और बच्चों की चिंता ने इन पंद्रह दिनों से वह सोच के ऐसे समंदर में गोते लगाती रही है जहाँ मंथन के बाद वह समझ पाई है कि साथी का बिछौह अपनी जगह है, और तहे दिल से चाहना अपनी जगह, लेकिन जिंदगी की नाव को खेने के लिए नाविक तलाशना कुछ गलत भी नहीं है, जिंदगी से मुँह मोड़ने से बेहतर है किसी का साथ लेकर जी लेना, देवयानी समझ चुकी है कि समय रहते चेत जाना मूर्खता नहीं है।

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