ग़ज़ल

 काफिया...आता

रदीफ़... रहा

मिसरा...सब्र हो मदहोश जाता रहा।

बहर....21222  122 212


अब तो चाहत नहीं रिश्ता बने 

कैसे जन्मों का कह दे नाता रहा ।


होश में तो ज़ब्त से पाला पड़ा 

सब्र हो  मदहोश जाता रहा  ।


उसको है हैवानियत सिखाता कौन 

दिल से इंसानियत निभाता रहा  ।


अब मजा बंधन में भी कुछ है नहीं 

क्यों भरोसा खुद पर ही जाता रहा ।


मुझको बर्बादी तरह से तीर सा 

ओर बुलंदि पास बुलाता रहा ।