लेख

 



               रियासत मंडी  की रानी खैरागढ़ी


      रानी खैरागढी,  खैरागढ़ की राजकन्या थीं ,  रानी खैरागढ़ी का नाम ललिता कुमारी था । मण्डी के राजा भवानीसेन  अपने पिता राजा विजयसेन की मृत्यु के पश्चात् सन् 1903 में बीस वर्ष की अवस्था में गद्दी पर आसीन हुए।
तथ्यों के अनुसार इनके पिता विजयसेन ने भवानीसेन का विवाह सुकेत राज्य के मियाँ सूरतसिंह की दो बेटियों से कर दिया था जिनमें से एक विवाह के तुरन्त बाद अस्वस्थता के चलते वह  परमलोक सिधार गई ,  किन्तु दूसरी जीवित थी।


 राजा भवानीसेन पहाड़ी राजाओं में अति सुन्दर था और बचपन के विवाह से संतुष्ट नहीं था। 1907 मैं  राजा ने 24 वर्ष की आयु में तीसरा विवाह किया तब रानी खैरागढ़ी की आयु मात्रा 16 वर्ष की थी। वह अधिक पढ़ी लिखी भी नहीं थी , परन्तु तीक्ष्ण बुद्धि अवश्य थी। यही तीसरी रानी ललिता कुमारी रानी खैरगढ़ी के नाम से चर्चित हुई। 


राजा भवानीसेन अत्याद्धिक शराब का सेवन करता था इसीलिए रानी खैरागढ़ी राजकार्यों में पूर्ण रूपेण रुचि लेती थी और प्रजा के दुःख-दर्द में भागीदार बनती।
        बहुत सी पहाड़ी रियासतें  जिनमें कुल्लू और काँगड़ा अंग्रेजी हुकूमत के अंतर्गत आ चुकी थीं। इसी प्रकार मण्डी रियासत भी 1845 से ही अंग्रेजों के संरक्षण में आ चुकी थी। राजा का राज तो था पर उसे चलाते अंग्रेजों के
एजेंट ही थे। मण्डी राज्य का सारा कार्य मि. कारवेट और मि.गार्डनवाकर करते थे , वह राजा भवानीसेन को हर वक्त नशे में धुत रखते। पर रानी हर बात में हस्तक्षेप करके उनके रास्ते का रोड़ा बनी हुई थी। उसे राजकार्य में अंग्रेजों की दखलंदाजी अखरती थी। वह राजा भवानीसेन को बुरी संगत से बचाने का प्रयत्न भी करती रहती। रानी खैरागढ़ी परदा भी नहीं करती थी और घोड़े पर बैठकर रियासत का चक्कर लगाती रहती। लोगों  की शिकायतें सुनती और
उनके फैसले करती। इससे अंग्रेज बहुत नाराज तो थे ही उस पर राजा भवानीसेन ने भी कह दिया कि हमारी गैर हाजिरी में हमारी रानी ही राज्य का काम सँभालेगी। इस बात पर तो सुपरिंटेंडेंट गार्डनवाकर आग-बगूला हो गया।



अपनी मनमानी चलती न देख अंग्रेजों ने राजा भवानीसेन को  शराब में धीमा जहर देना शुरू कर दिया जिससे मात्र 29 वर्ष की आयु में ही राजा काल के गाल में समा गया। 


 रानी अंग्रेजों की चाल को समझ रही थी  लेकिन कभी -कभी परिस्थितियाँ आपके अनुसार नहीं होती,   वह सब जानते समझते हुए भी लाचार थी। भवानीसेन के निःसंतान होने से मण्डी रियासत को भी सीधे अँग्रेज हुकूमत के अधीन करने की सिफारिश भेज दी गई।


 रानी खैरागढ़ी क्रान्तिकारी मुंशी बृजलाल को जानती थी।
जयदेव उपाध्याय भी राजा के पास आया करते थे। अतः इन दोनों अनुभवी महानभावों के परामर्श से रानी ने किशनसिंह के पुत्र जोगिंदरसिंह को गोद ले लिया और उसी दिन जोगिंदरसिंह को मण्डी रियासत का  उत्तराधिकारी
घोषित कर दिया।
   लार्ड गार्डनवाकर रानी के इस कार्य से बहुत बौखलाया पर कुछ न कर सका क्योंकि मण्डी की फौज  किशनसिंह की कमांड में थी। रानी इस प्रकार एक बार अपने राज्य को अंग्रेजों के चंगुल से बचाने में सफल रही।


जोगिंदर सेन मंडी रियासत के वारिस तो थे मगर संरक्षक की भूमिका निभा रही उनकी मां ललिता ने पुत्रमोह के बजाय देशप्रेम को प्राथमिकता दी। 


        इधर अंग्रेज, रानी को किसी जाल में फंसाने की ताक में रहते, उधर रानी अँग्रेज एजेंटों की दखलंदाजी सहने को तैयार नहीं थी। रानी को  इतिहास में गहरी रुचि थी और रानी झांसी के इतिहास से परिचित थी। वह अंग्रेजों की नीति के विरोध में क्रान्तिकारियों से सम्पर्क बनाए हुए थी, फिर भी रानी को अपनी सीमाओं का ज्ञान था , वह बेहद सर्तकता रखती। 



रानी खैरागढ़ी ने क्रांति का रास्ता अपना लिया। उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले लाला लाजपतराय के संगठन के लिए काम किया। उन्होंने आजादी के लिए संघर्ष करने वालों को आर्थिक योगदान तो दिया ही, खुद भी सक्रिय भूमिका निभाई। स्वतन्त्र के लिए..नौजवान उबल रहे थे किसी भी तरह अँग्रेज यहा से भागाये जाए। इसलिए सारी योजनाएँ बड़ी सावधनी से बन रही थीं। 



रानी ललिता लगातार क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ी रहीं। बम बनाने का प्रशिक्षण भी उन्होंने लिया था। मंडी में गदर पार्टी के कई सदस्य सक्रिय थे और रानी खैरागढ़ी उनके संरक्षक की भूमिका में थीं। साल 1914 में योजना बनाई गई कि नागचला स्थित सरकारी खजाने को लूट लिया जाए। पंजाब से क्रांतिकारियों की तरफ से बनाए गए बम भी मंगवाए गए थे। क्रांतिकारी मंडी में अंग्रेज सुपरिटेंडेंट, वजीर और अन्य अंग्रेज अफसरों को उड़ाना चाहते थे। नागचला में खजाने को तो लूट लिया गया, मगर दलीप सिंह और पंजाब के क्रांतिकारी निधान सिंह पकड़े गए। पुलिस ने इन्हें भयंकर यातनाएँ दीं और उन्होंने सभी सदस्यों के बारे में जानकारी दे दी।


इन्हीं दिनों मण्डी में भाई हरदेव जो बाद में कृष्णानन्द के नाम से विख्यात हुए, भाई हीरदाराम आदि गदर पार्टी के प्रमुख कार्यकर्ता विशेष रूप से सक्रिय थे।  रानी खैरागढ़ी भी गदर पार्टी में सक्रिय थी।


 1914-15 में पंजाब के ख़ुफिया विभाग को सूचना दी गई कि मण्डी राज्य में गदर पार्टी के कार्यकर्ता सक्रिय हैं। खोज करने से पता चला कि बात सच थी। गार्डनवाकर, 
स्ट्रीकलैंड और एमरसन को मारने की योजना थी। जाहिर है कि इसमें गदर पार्टी का कोई हित नहीं था। उनका लक्ष्य तो पार्टी के लिए धन एकत्र करना था और धन उन्हें रानी खैरगढ़ी दे रही थी अतः यह योजना रानी की ही
थी, वह अंग्रेजों को दहसत मैं देखना चाहती थी।


बद्रीनाथ, शारदा राम, ज्वाला सिंह, मियां जवाहर सिंह और लौंगू नाम के क्रांतिकारियों को पुलिस ने पकड़कर जेल में डाल दिया। बात रानी खैरागढ़ी की आई तो उन्हें रियासत से निकाल दिया गया। कोई और होता तो हार मान लेता या झुक जाता, मगर रानी ललिता ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने लखनऊ में प्रवास के दौरान कांग्रेस में सक्रियता से हिस्सा लेना शुरू किया। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया और महिला कांग्रेस की अध्यक्ष भी चुनी गईं।


 रानी ललिता,  खैरागढी के बेटे जोगिंदर सेन बाद में रियासत के राजा बने। उन्होंने न सिर्फ कई विकास कार्य करवाए बल्कि देश के आजाद होने पर हिमाचल के गठन में भी अहम भूमिका निभाई।


साल 1938 में मंडी रियासत का सिल्वर जुबली समारोह था। बेटे जोगिंद्रसेन, जो मंडी के राजा थे, ने मां को लखनऊ से मंडी बुलाया। मां चल दी, लेकिन मन में एक ही आश.थी कि अँग्रेजों को खदेडना हैं ,  आज के जोगिंद्रनगर (सुक्राहट्टी) में हराबाग नाम की जगह है, जहाँ पर क्रांतिकारियों के साथ रानी खैरागढी बैठक कर रही थीं। गाँव वालों ने क्रांतिकारियों के लिए खाना भेजा, किसी कारण या साजिश के तहत कुछ कहा नहीं जा सकता,  मगर वह भोजन  खराब था। रानी को हैजा हो गया और उनका निधन हो गया। अफसोस कि देश को आजाद देखे बिना ही वह इस दुनिया से चली गई। यह एक मिथक कहानी भी हो सकती है। क्योंकि इतिहासकारों ने जब जानकारी ली तो उन्हें कुछ और ही पता चला।


श्री नूतन लिखते हैं कि ‘आश्चर्य तो इस बात का है कि अंग्रेज़ों की हत्या करना तो उन दिनों क्रान्ति का एक भाग था फिर इतिहास रानी का नाम लिखने में क्यों संकोच करता रहा? " लगता है कि उन दिनों इतिहासकार मनमोहन सिंह को तत्कानलीन सुरिंटेंडेंट मिस्टर एमरसन ने रानी खैरागढ़ी की फाइल ही नहीं दी। मनमोहन सिंह ने स्पष्ट भी किया है कि वह ऐतिहासिक तथ्य की कुछ फाइलें देखना चाहते थे पर एमरसन के अनुसार 10 जनवरी 1916 की रात को मण्डी स्टेट न्यायालय और दफ्तरों में लगी भयंकर आग में सब कुछ जल गया।
दरअसल एमरसन को मारने की साज़िश उस फाइल में थी। उसमें खैरागढ़ी, नारायण, मुंशी बृजलाल आदि के बयान थे जो अंग्रेजों की काली करतूतों का भण्डापफोड़ कर देते इस लिए अंग्रेजों ने उसे जला दिया।’ इससे यह तो साबित हो जाता है कि रानी खैरगढ़ी की इसमें विशेष भूमिका रही है।


        जिन दिनों गदर पार्टी के सदस्य मण्डी और सुकेत में थे उन्हीं दिनों इन क्रान्तिकारियों ने मियां जवाहरसिंह और रानी खैरगढ़ी से सम्पर्क साधा और इनसे आर्थिक सहायता भी प्राप्त की। इन की गुप्त बैठकों में सुरिंटेंडेंट तथा वजीर को मारने, खजाना लूटने, व्यास का पुल उड़ाने और मण्डी सुकेत पर अधिकार करने की भी योजना बनी लेकिन नागचला की डकैती के अलावा ये और कुछ नहीं कर सके। पकड़े जाने पर रानी को देश निकाले की सज़ा मिली। फिर भी गुप्तचर विभाग की सूचना पर जो लोग पकड़े गए उनमें रानी खैरगढ़ी का नाम नहीं है। ‘इण्डियन आफिस लाइब्रेरी’ लन्दन की सूची में हजारों दस्तावेजों की फेहरिस्त है जिन को नष्ट कर दिया  गया ।
        ‘इतिहास साक्षी है’ के लेखक को रानी के निकटस्थ नारायण और मुंशी बृजलाल ने बताया कि मण्डी रियासत के उत्तराधिकारी जब लाहौर से पढ़कर आए उन्होंने रानी खैरागढ़ी की सज़ा कम करवाई। बृजलाल का रानी का पत्र-व्यवहार था।
;मुंशी बृजलाल के पास रानी के हाथ का उर्दू में लिखा पत्र श्री नूतन ने देखा है। वह दोनों छिप-छिपकर रानी से मिला करते थे। राजा जोगिंदर सिंह रानी की सज़ा कम करवाकर उन्हें मण्डी ले आए। पर रास्ते में हरनाला जोगंदर नगर में ही निमोनिया से उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन तथ्य बताते हैं
कि जब वह राजमाता बनकर मण्डी लौट रही थीं तो वे पूर्ण रूपेण स्वस्थ थीं.जिस दिन उन्हें मण्डी में प्रवेश करना था उसी दिन राजा को बहाने से बुलवा लिया गया और उनकी अनुपस्थिति में जहर का इंजेक्शन दे कर उन्हें मरवा दिया गया। राजा मण्डी का भी इस बात में विश्वास है।


अपनी पुस्तक ‘इतिहास साक्षी है’ में श्री कृष्ण कुमार  नूतन लिखते हैं कि जब उन्होंने रानी खैरागढ़ी का इतिहास जानने के लिए रिकार्ड खंगाले तो उन्हें पता चला कि सब महत्वपूर्ण दस्तावेज़ जला दिए गए हैं।’ उन्होंने यह भी लिखा है कि
इतिहास तो विजेताओं का होता है। विदेशी शासक जो इतिहास हमारे माथे थोप गए हैं हम आज भी उसे ही सर पर उठाए घूम रहे हैं। देश की आजादी के लिए, मानवीय मूल्यों के लिए जिन लोगों ने संघर्ष किया, अंग्रेजी हुकूमत ने तो
उन्हें गद्दार कहकर एकाध पंक्ति में ही बात समाप्त कर दी। उस समय के अधिकांश प्रामाणिक और महत्वपूर्ण दस्तावेज सब नष्ट कर दिए। इसी तरह रानी खैरागढ़ी का इतिहास भी  बहुत अंतराल बाद  निकल कर सामने आया, लेकिन जहां  वीरता ओर त्याग का संगम हुआ हैं तो वह छुपाये नहीं छुपता...ऐसी रानी जो न सिर्फ देशप्रेमी थी, बल्कि सही मायनों में मजबूत और सशक्त महिला थी। वह न सिर्फ महिलाओं के लिए बल्कि हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।


 


अंजना छलोत्रे