भेजा
अपने मकसद मैं कामयाब होती योद्घाएँ
रामप्यारी गुर्जर की तरह ही मुजफ्फरनगर की कल्श्सान कुल की आशादेवी गुर्जर का जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर( अब शामली जिला ) के कल्श्सान खाप में सन् 1829 मैं हुआ। अपने गाँव में ही महिलाओं को संगठित करने का बीडा़ उठाया। महिलाओं को भी आजादी की जंग में कंधे से कंधा मिलाकर शामिल करने के लिए तैयारी में जुट गई। क्योंकि 10 मई को कोतवाल धनसिंह गुर्जर के नेतृत्व मे मेरठ से क्रान्ति की शूरूआत हो गई थी
इस क्रान्तिकारियों के तहत गुर्जरों के गाँव की इस साधारण सी गुर्जर महिला ने महिलाओं को संगठित कर अपनी सेना बना ली ।
आशादेवी गुर्जर के संगठन की ताकत का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि संगठन में 250 महिलाएँ शामिल हो गई।
1857 के संग्राम मे उस वीरांगना युवती ने अग्रेजो को काफी मश्किलों में डाला ओर आस - पास के क्षेत्रों मे अपना दबदबा कायम कर लिया ।
सैनिको की शहादत के बाद ही अंग्रेज सेना आशा देवी के
संगठन की महिला सैनिकों पर टूट पडी़। 250 महिला सैनिकों की शहादत के बाद ही अंग्रेजी सेना आशादेवी को युद्धभूमि में जिन्दा पकड सकी थी। 11 अन्य महिला सैनिकों के साथ अंग्रेजों ने आशादेवी को फासी पर लटका दिया। आशा देवी का साथ देने वाली वीरांगनाओं में हबीबा गुर्जरी, रहीमी गुर्जरी, रनवीरीवाल्मीकि, शोभादेवी, वाल्मीकि महावीरी देवी, सहेजा वाल्मीकि, नामकौर, राजकौर, देवी, भगवानी देवी, भगवती देवी, इंदर कौर, कुशल देवी इत्यादि शामिल थीं। ये वीरांगनाएँ अंग्रेजी सेना के साथ लड़ते हुए शहीद हो गईं। अपनी बहादुरी से शोर्य ओर पराक्रम का आशादेवी ने एक बार फिर नया सचांर किया।
1857 ई. में ही अंग्रेजों के साथ विद्रोह शुरू हुआ था, जिसमें न केवल क्रांतिकारियों ने अपितु भारतीय जनता ने भी खुलकर भाग लिया था। इस काल में एक जलजला आया जिसमें स्वतंत्र होने की ललक जागृत हुई और उसमें महिला, पुरुष, बच्चों, युवाओं सभी ने बढ़ चढ़कर भाग लिया और उसी का परिणाम था कि हमें 100 साल बाद आजादी मिली।
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शक्तिशाली महाबीरी देवी
महाबीरी देवी मुजफ्फरनगर जिले के मुंडभर गाँव की रहने वाली थी। हालांकि वह अशिक्षित थी, किंतु अत्यंत प्रतिभाशाली थी और बचपन से ही अन्याय के खिलाफ लड़ने का संकल्प ले चुकी थी। महावीरी देवी ने स्त्रियों की एक टुकड़ी का गठन किया, जिसका उद्देश्य स्त्रियों और बच्चों को घृणित कार्य करने से रोकना तथा उन्हें आत्म सम्मान की शिक्षा देना था। 1857 में उसने 22 स्त्रियों की एक टुकड़ी बनाई और अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। बहादुरी से लड़ते हुए उसने कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। जब अपनी हार को पास पाया तो वे शरण के लिए नेपाल चली गईं। बेगम के नेपाल पहुँचने तक उनके पीछे आ रही ब्रिटिश सेना को रोकने रखने का काम किया तुलसीपुर की रानी राजेश्वरी ने। रानी राजेश्वरी के पति को पहले ही कैद किया जा चुका था। लड़ाई छिड़ने पर रानी ने अंतिम साँस तक युद्ध लड़ा और आत्मसमर्पण नहीं किया। राजेश्वरी की वीरता ने ही बेगम को नेपाल तक पहुँचने का समय दिलाया। नेपाल में बेगम ने बहुत अभावों में अपना जीवन जिया पर आत्मसमर्पण या कोई समझौता नहीं किया। रानी राजेश्वरी उस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुईं।
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रानी जवाहर बाई की बहादुरी जिसने बहादुरशाह की सेना से लोहा लिया
सन् 1533 उस समय चित्तौड़ की गद्दी पर राणा विक्रमादित्य विराजमान था। रानी जवाहर बाई राजरानी थी। विक्रमादित्य की कायरता के चलते सबको चिंता सतये रहती थी कि चित्तौड़ की सुरक्षा किस तरह होगी।
सन् 1533 में गुजरात के बादशाह बहादुरशाह जफर ने एक बहुत बड़ी सेना के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।
यह अच्छी बात हुई कि देवलिया प्रतापगढ़ के रावल बाधगी अपनी राजधानी से आकर चित्तौड़ आकर विक्रमादित्य का साथ देने को तैयार हुए। उनके नेतृत्व अधीनता में सब राजपूत वीरता के साथ युद्घ के लिए तैयार हो गए। सबने शपथ खाई कि या तो पूर्ण पराक्रम से लड़कर विजय प्राप्त करेंगे या युद्ध में प्राण देकर वीरगति प्राप्त करेंगे।
मुसलमान सेना राजपूतों की अपेक्षा अधिक थी, परंतु फिर भी राजपूत संगठीत हो गये।
युद्ध के आरम्भ होते ही बहादुरशाह ने पहले अपनी तोपों से ही काम लिया, वह लगातार तोपों से महल पर आक्रमण करने लगा। राजपूत ने भी तोपों की गर्जना सुनकर द्विगुणित गति से जिधर से गोला आता था, उधर बड़ी फुर्ती से अपने तीक्ष्ण बाण चलाने लगे। गोल चलाने वाले तीरों की मार से वही लुड़क जाते।
उस समय तोपों से न तो बहुत दूर की मार होती थी और न वे जल्दी जल्दी चलती थी। इसलिए तोपों के साथ साथ बंदूकें भी मुसलमान सेना को चलानी पड़ीं। बंदूकों तथा तोपों के धुएँ से रणस्थल में अंधकार छा गया। एक दूसरे को कुछ सूक्ष नहीं रहा था लेकिन इस सब के चलते दोनों पक्षों के बहुत सैनिक मारे गए, फिर भी बहादुरशाह चित्तौड़ पर विजय न पा सका।
अपनी रणनीति के तहत बहादुरशाह ने किले की एक ओर की दीवार को बारूद की सुरंग से उडाने का योजना बनाई। दीवार का वह भाग बारूदी सुरंग से उडाया गया । वहां हाड़ा वीर अर्जुनराव अपने पांच सौ योद्धाओं के साथ युद्ध कर रहें थे, वह सैनिकों सहित मारे गए। शत्रुओं ने इस समय भग्न दुर्ग के भीतर घुसने के लिए धावा बोल ।
चित्तौड़ के जाबांज सैनिक वीरवर चूड़ावत, रावदुर्गादास उसके मुख्य सुभट संताजी और दूदाजी तथा कितने ही अन्य सामंत और सैनिक शत्रुओं के सामने अचल और अटल रूप से डटे रहे ओर लगातार किले में घुसने से रोकते रहे। देह में प्राण रहते शत्रु उन्हें हरा न सके, अपने पराक्रम से वह बहादुरशाह के आक्रमण को रोकते रहें, परंतु थोडे से राजपूत कब तक प्रचंड सेना का प्रतिरोध करने में समर्थ हो सकते थे। वीरता के साथ युद्ध करते रहने पर जब वे मरते मरते कम रह गए, तो बहादुरशाह की सेना किले में घुसने लगी।
रानी जवाहर बाई ने जब अपने साथियों ओर सेना के प्रमुख के मरे जाने का समाचार सुना, तो उन्होंने लगा कि अब यदि कहीं राजपूत निराश और हताश हो गए, तो चित्तौड़ का बचना कठिन है। ...राजपूती रवायत के अनुसार तुरंत जौहर की तैयारियाँ होने लगी ।
पर सशक्त और वीर रानी जवाहर बाई ने उन राजपूती नारियों को कहा... "वीर क्षत्राणियों जौहर करके सिर्फ अपने सतीत्व की रक्षा करोगी, तलवार उठाओ , दुश्मन से लड़ते - लड़ते देश रक्षा हित में मरो और अमर हो जाओ ,जब मरना ही है तो वीरों की मौत मरो । युद्ध मैं शत्रुओं का खून बहा कर रण गंगा में स्नान कर अपने जीवन को ही नहीं मृत्यु को भी सार्थक बना दो ।"
बस फिर क्या था रानी जवाहर बाई की ललकार सुन जौहर करने को उद्दत अनेक राजपूत महिलाओं ने हाथों में तलवार थाम कर युद्ध के लिये खड़ी हो गई ।
चित्तौड़ किले मैं जहाँ एक ओर जौहर यज्ञ की प्रचण्ड ज्वाला धधक रही थी तो दूसरी ओर एक अद्भुत देश भक्ति का दरिया उफान ले रहा था ।
एक जबरदस्त झटका लगा बहादुरशाह की सेना को
अचानक से उनकी किले में घुसने की गति रूक गई । सब आश्चर्यचकित थे , योद्धा के वेश में एक रमणी प्रचंड रूप लिये किले पर चढ़ी हुई, हाथ में भाला लिए खड़ी हुई थी, यह विरांगना वीर महिला रानी जवाहर बाई थी।
रानी जवाहर बाई के नेतृत्व में घोड़ों पर सवार नंगी तलवार हाथ में लिये वीर वधुओं का ये दल शत्रु सेना पर कहर ढाने चल निकला ..जौहर के लिये तैयार हुई सूहागने रणचण्डी बन कर लड रही थी , अपने सिन्दूर का मोल , रक्त से चुका रही थी ।
इस तरह सतीत्व के साथ - साथ देश रक्षा के लिये रानी जवाहर बाई के नेतृत्व में क्षत्रिय वीरांगनाओं ने अद्भुत रण कौशल का प्रदर्शन किया । रानी जवाहर बाई ने कवच धारण कर, शस्त्र ले स्वयं ललकारते हुए, घमासान युद्ध में उतर गई। योद्धाओं को जूझने के लिए उत्साहित करती हुई, वार पर वार करती जा रही थी।
रानी जवाहर बाई की वीरता को देखकर राजपूतो में भी साहस का संचार हुआ। उन्होंने भी ऐसा पराक्रम दिखाया कि बहादुरशाह को पिछे हटना पड़ा। रानी जवाहर बाई राजपूतों के आगे रास्ता रोके खड़ी थी, जो यवन आगे बढ़ता था, वह वही उनके भाले से मारा जाता था। भाले के दारूण प्रहार से बहुत से यवन सैनिक मारे गए।
राजपूतों और बहादुरशाह में घोर युद्ध हो रहा था। कई यवन एक साथ आगे आने लगे, फिर भी वह असीम साहस के साथ युद्ध करती रही । रानी जवाहर बाई जहाँ यवन दल की प्रबलता देखती, वहीं तीव्र वेग से अपने घोडे को लाकर युद्ध करने लगती थी।
युद्घ चरम पर था, भयंकर गरजना हो रही थी। औजारों की आवाज आत्मा तक में कंपन पैदा कर रही थी । उसी समय रानी जवाहर बाई के शरीर में तोप का एक गोला आकर लगा और फट गया। रानी संसार में अपनी वीरता का अपूर्व दृष्टांत और आत्मोत्सर्ग का ज्वलंत उदाहरण छोड़ वीर गति प्राप्त हुई।
नमन् है इन वीरांगनाओं के अद्भुत रण कौशल और देश भक्ति की भावनाओं को । मेवाड़ की ऐसी ही वीरांगनाओं, सतियों और पतिव्रता रानियों के कारण मेवाड़ को और भी यश प्राप्त हुआ। इतिहास रचने वाली नेत्रियाँ हमारी प्रेरणास्रोत हैं, जितना गर्व किया जाये कम हैं।
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रानी प्रभावती की सूझबूझ की अनोखी कहानी
प्रभावती गुप्त, गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री थी। उसका विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ 380 ई॰ के आसपास हुआ था। अपने अल्प शासन के बाद 390 ई॰ में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और 13 वर्ष तक प्रभावती ने अपने अल्प-वयस्क पुत्रों (दिवाकर सेन तथा दामोदर सेन)की संरक्षिका के रूप में शासन किया। दिवाकर सेन की मृत्यु प्रभावती के संरक्षण काल में ही हो गई और दामोदर सेन वयस्क होने पर सिंहासन पर बैठा। यही 410 ई॰ में प्रवरसेन द्वितीय के नाम से वाकाटक शासक बना।
उसने अपनी राजधानी नन्दिवर्धन से परिवर्तन करके प्रवरपुर बनाई। शकों के उन्मूलन का कार्य प्रभावती गुप्त के संरक्षण काल में ही संपन्न हुआ। इस विजय के फलस्वरूप गुप्त सत्ता गुजरात एवं काठियावाड़ में स्थापित हो गई।
रानी प्रभावती कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ रूप और गुणों की खान थी उस समय उनकी सुंदरता के चर्चे चारों ओर फैले हुए थे, वह जितनी सुंदर थी, उतनी ही कुशल शासक भी थी और निर्णय लेने में निपुण , अपने राज्य की सुरक्षा करना और अपने बच्चों को पालना उनका मुख्य उद्देश्य हो गया था
उनके शासन का सुचारू रूप से चलना और उनकी सुंदरता का बखान यवन बादशाह को अक्सर सुनाई देता था उनके मन में लालसा जागी कि क्यों ना किन्नौर का किला जीता जाए और रानी प्रभावती को रानी बना लिया जाए।
अपनी मंशा को अंजाम देने के लिए यमन ने किन्नौर पर चढ़ाई कर दी । यह समाचार पाकर रानी प्रभावती बड़ी वीरता के साथ लडी। जब बहुत से वीर सैनिक मारे गए, और सेना थोडी रह गई, तब किला यवनों के हाथ में चला गया।
रानी प्रभावती इस पर भी नहीं घबराई और बराबर लड़ती रही। जब किसी रीति से बचने का उपाय न रहा तो वह अपने नर्मदा किले में चली गई, परंतु यवन सेना उनका बराबर पीछा करती रही। बडी कठिनाई से किले में घुसकर रानी ने किले का फाटक बंद करा दिया। यहां भी बहुत से राजपूत सैनिक लडते - लड़ते मारे गए।
यवन बादशाह ने रानी प्रभावती के पास एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा था— सुंदरी! मुझे तुम्हारे राज्य की इच्छा नहीं है। मै तुम्हारा राज्य तुम्हें लौटाता हूँ। और भी संपत्ति तुम्हें देता हूँ, तुम मेरे साथ विवाह कर लो। विवाह होने पर मैं तुम्हारा दास बनकर रहूंगा।"
रानी को यह पत्र पढ़कर क्रोध तो बहुत आया, परंतु क्रोध करने से क्या हो सकता था, इसलिए उसने काफी सोच विचार कर यह उत्तर लिखा— "मुझे विवाह करना स्वीकार है, किंतु अभी आपके लिए विवाह योग्य पौशाक तैयार नहीं है। कल तैयार हो जाने पर विवाह होगा। "
अंधा क्या चाहे दो आँखें बादशाह खुशी से फूला नहीं समा रहा था वह इस बात से प्रसन्न था कि उसकी यह लड़ाई अब सफल होने जा रही है ।
दूसरे दिन रानी ने बादशाह के पास एक उत्तम पौशाक भेजकर यह कहलाया, कि इसे पहनकर विवाह के लिए शीघ्र आओ।
अपनी चाहत को अपनी ताकत से जीतने का गुरूर मन में पाले बादशाह रानी की भेजी हुई पौशाक को पहन कर बड़ी खुशी के साथ शादी करने की उत्सुकता लिए रानी के महल में आया।
रानी से सामना होते ही वह अपनी सुध बुध खो बैठा और उनके सौंदर्य में ही खो गया, वह सोचने लगा कि ईश्वर ने कितनी फुर्सत में इतनी सुंदर नारी का निर्माण किया है और यह अब मेरी होने जा रही हैं।
हल्की सी बेचैनी और उत्सुकता की अधिकता की वजह से वह यह समझ नहीं पाया कि उसे कुछ अंदर से घबराहट हो रही थी, बादशाह दर्द से व्याकुल हो गया, उसे मूर्छा सी आने लगी और उसकी आखों के आगे अंधेरा छा गया। पीड़ा से छटपटा कर वह चीखने लगा ।
रानी प्रभावती ने यह सब देखकर कहा "आज इस जीवन का अंत भी निश्चित हैं , किसी भी स्त्री को युद्ध में जीतकर पाया नहीं जा सकता, हा उसे बंदी बनाकर बरबरता की जा सकती हैं, कोई भी स्त्री अक्रान्ता के साथ खुशी- खुशी विवाह नहीं करेगी, इसलिए तुम्हारी मृत्यु के लिए विष से रंगी हुई पौशाक भेजी थी ।"
बादशाह जमीन पर गिर कर तडपता हुआ गगन भेदी चित्कार कर रहा था।
रानी प्रभावती ने एक तिरस्कृत नजर डाली ओर हाथ जोड
ईश्वर से कुछ प्रार्थना की और किले पर से नर्मदा नदी में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए।
धन्य हैं रानी प्रभावती, जिन्होंने आपने को सुरक्षित कर दुश्मन को भी समाप्त कर दिया। उनकी सूझबूझ और उनकी कार्यशैली इतिहास में दर्ज हो गई।
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रानी गिडयालू
"नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई"
रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के तौसेम उप-खंड के नुन्ग्काओ (लोंग्काओ) नामक गाँव में हुआ था। अपने माता-पिता की आठ संतानों में वे पांचवे नंबर की थीं। उनके परिवार का सम्बन्ध गाँव के शाषक वर्ग से था। आस-पास कोई स्कूल न होने के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं हो पायी।
नागालैंड के उत्तरी कछार में रहने वाली रानी गिडयालू मात्र 13 साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के ‘हेराका’ आन्दोलन में शामिल हो गयीं। प्रारंभ में इस आन्दोलन का स्वरुप धार्मिक था पर धीरे-धीरे इसने राजनैतिक रूप धारण कर लिया जब आन्दोलनकारियों ने मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंग्रेजों को खदेड़ना शुरू किया। । मणिपुर के ग्रामीणों को सत्याग्रह में शामिल करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। सन् 1931 में जब अंग्रेजों ने जादोनाग को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया तब रानी गाइदिनल्यू उसकी आध्यात्मिक और राजनीतिक उत्तराधिकारी बनी।
जोडयांग की मौत के बाद गिडयालू ने आंदोलन अपने हाथ में ले लिया और "नो टैक्स" अभियान छेड़ा। इस पर अंग्रेजों ने उनके गाँव के सारे हथियार जब्त कर सामूहिक जुर्माना लगा दिया। जिससे आंदोलन तेज हो गया। उन्होंने अपने लोगों को कर नहीं चुकाने के लिए भी प्रोत्साहित किया। कुछ स्थानीय नागा लोगों ने खुलकर उनके कार्यों के लिए चंदा दिया।
ब्रिटिश प्रशासन उनकी गतिविधियों से पहले ही बहुत परेशां था पर अब और सतर्क हो गया। अब वे उनके पीछे लग गए। रानी बड़ी चतुराई से असम, नागालैंड और मणिपुर के एक-गाँव से दूसरे गाँव घूम-घूम कर प्रशासन को चकमा दे रही थीं। असम के गवर्नर ने ‘असम राइफल्स’ की दो टुकड़ियाँ उनको और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजा। इसके साथ-साथ प्रशासन ने रानी गाइदिनल्यू को पकड़ने में मदद करने के लिए इनाम भी घोषित कर दिया और अंततः 17 अक्टूबर 1932 को रानी और उनके कई समर्थकों को बहुत श्रम के बाद गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
उस समय उनकी उम्र मात्र 16 साल थी।
रानी गाइदिनल्यू को इम्फाल ले जाया गया जहाँ उनपर 10 महीने तक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। प्रशासन ने उनके ज्यादातर सहयोगियों को या तो मौत की सजा दी या जेल में डाल दिया। सन 1933 से लेकर सन 1947 तक रानी गाइदिनल्यू गौहाटी, शिल्लोंग, आइजोल और तुरा जेल में कैद रहीं।
सन् 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू उनसे शिंलाग जेल में मिले और उनकी रिहाई के प्रयास किए, किन्तु अंग्रेज़ों ने उनको रिहा नहीं किया। भारत की आजादी के बाद सन् 1947 में उनकी रिहाई हुई। आजादी के बाद उन्होंने अपने लोगों के विकास के लिए कार्य किया।
रानी एक प्रसिद्ध भारतीय महिला क्रांतिकारी थीं। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान नागालैण्ड में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। इस वीरांगना को आजादी की लड़ाई में तमाम वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए ‘नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है। रानी गिडयालू आजादी की जंग में उत्तर-पूर्व की महिलाओं के सक्रिय सहभागिता की प्रतीक हैं।
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1857 का विद्रोह और तवायफें
आनारू 1857 का विद्रोह और तवायफें में अजीजुननिसा नामक तवायफ के माध्यम से 1857 की जंग में तवायफों की भागीदारी पर विस्तार से चर्चा मिलती हैं अजीजुन के घर विद्रोहियों की बैठक हुआ करती थीं। अजीजुन ने औरतों का एक दल भी बनाया था। जो हथियारबंद सिपाहियों के साथ घूम-घूमकर युद्ध में घायल होने पर उनकी मरहम-पट्टी किया करता था और उनके बीच हथियार और गोला-बारूद बाँटता था तवायफों का विद्रोहियों को शरण देना और उन्हें वित्तीय सहायता पहुँचाना, इतना जोर-शोर से जारी था कि ब्रिटिश हुक्मरानों को तवायफों की संपत्ति को जब्त कराना पड़ा ताकि वे किसी प्रकार के वित्तीय सहयोग की स्थिति में ना रहें। उनके घरों को लुटवा दिया गया। तवायफें शिक्षित और संपन्न होने के साथ - साथ राजनैतिक समझ का बेहतर ज्ञान भी रखती थीं। नवाबों से सत्ता हड़पने के लिए जिस तरह तवायफों को अपमानित कर उन्हें मुहरा बनाया गया।
तवायफों ने गांधी जी से आग्रह किया तो उन्होंने तवायफों के नैतिक रूप से पतित होने की बात कह कर उनके इस आग्रह को ठुकरा दिया। जब तवायफों ने यह बात सुनी तो उन्हें बहुत दुख पहुँचा। बहुत सारी तवायफों ने अपने नाचने गाने का काम बंद कर दिया। तमाम तवायफों ने अपने तानपुरे, तबले, सारंगी आदि बनारस में गंगा नदी में बहा दिए और अपने घर में चर्खा कातना शुरू किया । यह निर्णय बहुत बड़ा था क्योंकि वे अपना आर्थिक आधार छोड़ रही थीं और उनके पास रोजी रोटी के दूसरे विकल्प नहीं थे। कई सारी तवायफों ने यह भी निर्णय लिया कि वे जब भी किसी महफिल में गाएँगी, तो सिर्फ देशभक्ति के गीत ही गाएँगी, श्रृँगारिक गीत नहीं। इस प्रकार उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपनी भागीदारी दी।
अपनी-अपनी तरह से विभिन्न वर्गों ने, समूहों ने , विभिन्न जाति वर्ग ने आजादी की जंग में अपनी अहम भूमिका निभाई
अन्त....
आजादी की जंग में बहन सत्यवती का जिक्र भी काफी रोचक और प्रभावशाली है। चंद्रगुप्त विद्यालंकार रानी सत्यवती के संस्मरणों के माध्यम से आजादी की इन योद्धाओं के व्यक्तित्व की मजबूती और आजादी के अदम्य इच्छा शक्ति को भी बताते हैं।
इसी प्रकार नानासाहेब की बेटी मैनावती को भी ब्रिटिश शासन से माफी न माँगने पर जलती आग में फेंक दिया गया ( मिश्र, 2009, पृ. 257)से अनेकों विद्रोह में शामिल महिलाओं के जिक्र ईस्ट इंडिया कंपनी के दस्तावेजों में मिलते हैं।