यात्रा वृत्तांत

यात्रा वृत्तांत
                
                     तपस्वी रूद्रा नंद बाबा


 


हम बाबा बालक नाथ के दर्शन के बाद ऊना लौटे.. जाते वक्त मन बना लिया था कि लौटते में दर्शन करना ही है। अनुमान था कि वेटिंग रूम में सामान रखकर,  हम पर्याप्त समय होने के कारण , रूद्रा नंद बाबा के डेरा हो आएगे।


रेलवे स्टेशन के सामने हमने सामान बस से उतारा,  चुकी आशा जी वहां की बोली जानती हैं,  उन्होंने सामने की दुकान पर जाकर पता किया  वेटिंग रूम तो  नहीं है ।


अपनी समस्या बताई और बाबा के डेरा जाने की बात कही. सज्जन व्यक्ति ने सामान दुकान पर रखने का कहा और सहायता स्वरूप ऑटो बस स्टैंड तक करवा दिया यहां तक कि डेरा तक का बस का किराया कितना लगेगा यह भी बता दिया ...


बिना बैगों में ताला लगाए,  सामान रखकर,  उनके द्वारा ही किए गए ऑटो में बैठ कर चल दिए।  मन की उत्सुकता और आनंद अलग ही तरह का था बस जाना है मन में थी चल दिए ।
बस खड़ी थी 20 मिनट में बाबा के डेरे के बस स्टैंड पहुंच गए  । थोड़ा सा चलने पर बाबा का डेरा पड़ता हैं।  द्वार पर पहुंचे तो दो बालकों से पूछा,  जो हमें वही के पंडित लग रहे थे , उन्होंने आदर पूर्वक अंदर ले गए , हमने विशाल दरवाजे से अंदर प्रवेश किया तो देखा लंगर चल रहा था हम सकूचाते हुए हवन कुंड व जहाँ बाबा साधना करते हैं वहाँ पहुंचे।


नतमस्तक हो हम अपनी जिज्ञासा के तहत वहाँ का इतिहास जानना चाह रहे थे कि हमारे पास श्री ......आ मिले,  बहुत ही सम्मान से उन्होंने हमें बाएँ तरफ बने मंदिर में बैठाया और शुरू हुआ रूद्र नंद जी का बचपन और समाधि लेने की यात्रा।


इस आश्रम के करीब ग्राम बडसाला नेहलोहिया ब्राह्मण के यहाँ बहुत तपस्या जप के बाद बालक का जन्म हुआ नाम रखा गया रूद्र नंद । बचपन से अद्भुत प्रतिभा के धनी बालक की बाल क्रीड़ा एक माता-पिता आश्चर्यचकित हो जाया करते थे।  एकमात्र संतान होने की वजह से  विशेष व्यवस्था मां बाप की तरफ से होती।  बहुत ही संभाल कर,  प्यार से बचपन बितने लगा ।


गायों का व्यवसाय था पिता का,  गायों से प्यार होता गया और सेवा करना , दूध,  घी बेचने जाना बाल्यावस्था के रोचक कार्य हो गये।


एक बार की घटना है उस दिन रुद्रानंद  गाय चराने नहीं गए थे ,  गाँव के नंबरदार ने  रूद्रानंद की गायों को व चरवाहों को द्वेष बस बुरी तरह से पीटा , चरवाहों ने आकर रुद्रा नंद को  सारी घटना सुनाई।


कुछ देर शांत रहकर रुद्रानंद ने पूछा कि जब तुम्हे नंबरदार पीट रहा था तब तुम्हें पीड़ा हुई क्या ? सब अचंभित थे उन्हें पीटा तो बहुत था लेकिन उन्हें चोट नहीं लगी यह बात रुद्रा नंद को कैसे पता हुई।कुछ देर बाद रुद्रनंद ने अपनी कमीज़ ऊची कर पीठ दिखाई।  पूरी पीठ में डंडों के लाल निशान बने हुए थे, रुद्रा नंद की करुण दृष्टि यह जता रही थी कि कितनी पीड़ा हो रही है।


उस जमाने में घर का छोटा बच्चा यदि है तो गाय चराने के कार्य करने से  काम की शुरुआत होती थी , बचपन से ही बडसाल और नारी ग्राम  में गौ चराने का कार्य करते रहे हैं।


वहीं एक धूना जला  लिया करते थे,  शाम को उसे राख से पूरकर घर चले जाते, दूसरे दिन पुनः जला  लिया जाता .यह क्रम वर्षों चला।


थोड़े बड़े हुए तो दूध , मठा, घी बेचने लगा दिए गए, मंडी
का रास्ता लंबा था , चीनी घाटी पार करनी होती थी । कई राहगीर आते जाते मिलते , कई डेरा डाले भी मिलते,  इसी तरह एक बार  घी बेचने जाते वक्त राह में संतों का डेरा लगा था , उन्होंने रूद्रानंद के साथियों से हवन सामग्री की मांग की तो अपने को बचाते हुए साथियों ने कहा कि पीछे रुद्रा नंदा आ रहा है , आपको वह हवन के लिए कुछ सामग्री दे देगा , कहकर वे आगे निकल गए।


साधुओं से रूद्रानंद से हवन के लिए घी मांगा । रूद्रानंद  ने उनसे उनका  बर्तन मांगा और घी डालने लगा,  वह डालता  गया  , डालता गया , न  तो उनका पात्र  भर और न ही  रूद्रा नंद  की कुप्पी खाली हुई  ।  अंत में संतों ने कहा कि बस इतना ही काफी है हमारे यज्ञ के लिए अब तुम अपना घी मंडी में जाकर बेच दो ।


बाल सुलभ मन घी  तो दिया , पर अब  चिंता थी कि इतने कम घी  से कितना पैसा मिलेगा , घर पर क्या जवाब देगा।  सोचते चले जा रहे थे । मंडी पहुंचकर साथियों के साथ बैठ गए , चर्चा होने लगी रास्ते में संतों को घी दिया क्या ? हमने तो नहीं दिया ।


खरीदारों ने घी की कुप्पियाँ  तौलना शुरू किया तो रूद्रानंद  की कुप्पी  में भी रोज की ही अपेक्षा ज्यादा घी निकला और पैसा भी ज्यादा मिला।


इस घटना से सभी को आश्चर्य होना स्वाभाविक था,  लेकिन प्रभाव ज्यादा पड़ा रूद्रानंद पर ,  वह सोचने पर विवश हुए की  संतों को अद्भुत शक्ति प्राप्त है।


लौटते वक्त मन बनाया कि कुछ देर संतों के साथ बैठेंगें,  जानेंगे कि इतनी शक्ति प्राप्त करने के लिए कौन सा रास्ता चुना जाए , इसी चिंतातुर वो संतों के बीच बैठे थे ।


संतों के पूछने पर कि " क्या बात है? किस चिंता में डूबे हो"।
रूद्रानंद बोले..."महाराज आप कृपा कर  मुझे प्रभु भक्ति का मार्ग बताइए,  मुझे साधना करके अपने जीवन को सफल बनाना है।"


रूद्रानंद के अंतःकरण से निकली बातों को सुनकर,  संतों के प्रमुख स्वामी दयाल दास जी ने कहा कि.. "आप , अपने पिछले जन्म के कर्मो को काट कर आये,  एक सिद्ध आत्मा हो,   जो बहुत ही  परोपकारी व प्रभु भक्त हो,  आपका तेज हम जैसे संतों द्वारा दीक्षित करने का सामर्थ्य नहीं रखता,  बल्कि आप की शरण में हमें आना है,  आपको आपकी श्रेणी के ऊपर उच्च तपस्वी संत ही दीक्षित कर सकते है।"


निराशा भरे शब्दों में रूद्रा नंद बोले ..."आप ही कोई मार्ग सुझाए ,  मैं उस महान तपस्वी को कहाँ तलाशू।'


स्वामी दयानंद दास जी ने मार्ग सुझाया..."  कि आप घर जाकर अपने माता पिता से आज्ञा लेकर होशियारपुर में बड़ी बस्ती नामक एक ग्राम में जाओ,  उसमें एक बावड़ी के साथ लगा शिव मंदिर है , वहीं बैठ कर आप अपनी तपस्या करें,  साथ ही एक ही स्थान पर नहीं रहना है , बल्कि पांच स्थानों का आश्रय लेना पड़ेगा, जब  अपने ग्राम में आएंगे,  उस समय भ्रमण पर निकले बनारस के प्रकांड पंडित ब्रह्मचारी श्री ब्रह्मानंद जी आपके पास आएंगे,  वह कुछ समय आपके पास रहेंगे,  वही आपको दीक्षा देंगे।


संत  दयाल दास जी ने सफल तपस्या का आशीर्वाद देकर रूद्रा नंद को विदा किया।


2.



माता - पिता को सारी बात बता कर , अपनी इच्छा भी जता दी , बहुत मनाने व हट करने पर भारी मन से माता-पिता ने रूद्रा नंद की भावना का मान रखा और भारी मन से जाने की अनुमती दी


बड़ी बस्सी पहुँच कर उन्होंने,  ग्राम वासियों से संपर्क किया, और रहने के लिए 4 किल्ले भूमि देने का अनुरोध किया ।


ग्राम वासियों ने उनकी भक्ति व सरल स्वभाव के चलते चार किल्ले भूमि दान के साथ,  गायें भी दी  ।  गाँव वालों ने मिलकर वहाँ एक छोटा सा आश्रम भी बना दिया।


भक्ति में डूबे रूद्रा नंद को कुछ समय बाद लगने लगा कि ग्राम वासियों की श्रद्धा उनके प्रति बहुत बढ़ने लगी है,   जिससे उनकी भक्ति में रुकावट होने लगी है,  तभी उन्होंने वह स्थान छोड़ने का निर्णय लिया और चल दिए,  साथ में कुछ सेवक भी साथ हो लिए।


ग्राम अम्ब ऊना रोड पर ग्राम पनोह में आ गये। वहा नदि किनारे  कुटिया बना कर तपस्या करने लगे।   इस नदी का नाम उन्होंने गूहर गंगा रखा था । 


कुछ समय बाद ही ग्राम वासियों ने रूद्रा नंद की झोपड़ी तोड़ दी और अफवाह फैलानी शुरू कर दी , ऐसी स्थिति में रूद्रा नंद शांत मन से उस जगह को छोड़ वह अपनी गायों को लेकर निकल गए।


चलते - चलते रूद्रा नंद ठंडी  घाटी बसाल चो   के किनारे पहुँचे , वही अपना डेरा डाला और गायों के लिए स्थान बना लिया , यहाँ  पर उन्होंने अपना धूना भी लगा लिया , यहाँ कुछ दिन रहे,  पुनः मन उचट गया ।


आगे बढ़े,  अपनी गायों के साथ वह  उसी ग्राम नारी पहुँचे जहाँ वह बचपन में गाय चराते थे , वही  उन्होंने धूना लगाया था ।


धूना  की राख हटाई तो देखा धूना में अग्नि यथावत है । वह ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हो अपनी पूरी श्रद्धा से यज्ञ  व गौ सेवा के साथ तपस्या करने लगे । यहां करीब ही आंवले का वृक्ष तथा थोड़ी दूरी पर पीपल का विशाल वृक्ष था , इस की छाँव में गाय विश्राम करती थी।


रूद्रा नंद की सेवा में लोग जुटने लगे,  उनके छोटे-छोटे काम करने व संत की सेवा का लाभ उठाने लगे ,  तो वही  कुछ लोग कम बुद्धि के भी थे , जिन्होंने वहाँ के मुखिया को खबर दी कि यह संत हमारी भूमि पर कब्जा कर लेगा और इसकी गाय भी हमारी फसल नष्ट कर रही है । बार - बार जब यह शिकायत आने लगी तो मुखिया ने अपने सहयोगियों के साथ रूद्रा नंद की कुछ गायों को गाँव के बाहर भगा दिया तथा रूद्रा नंद को भी निकाल जाने का आदेश दिया।


रूद्रा नंद तो  पुण्य आत्मा, अपना डेरा उठाया और चल दिए,  बौल गाँव के पूर्व से आने वाली एक छोटी सी नदी की ऊँची पहाड़ी पर,  जिसके नीचे एक जलकुंड भी था,  उपर अपना डेरा लगाया और वही धूना भी लगा लिया ।


प्राकृतिक संपन्न  यह पहाड़ी उनकी तपस्या के लिए प्रतिकूल रही । वह वन के फल व स्वच्छ हवा का सेवन करने लगे और उनके सेवक , उनकी व गायों की सेवा । यहाँ उन्होंने अपनी तपस्या को चरम पर पहुँचाया और ईश्वर में तल्लीन रहने लगे।


जिस दिन से नारी ग्राम को रूद्रा नंद ने त्यागा था वहाँ निराशा और बाधाओं , कष्टों ने अपना घर बना लिया था।  अशांति फैली हुई थी , मुखिया अशांत व बीमार रहने लगा धीरे-धीरे मुखिया को कुष्ठ रोग ने घेर लिया।  वैध , हकीम का इलाज चलता रहा,  लेकिन कोई फायदा नहीं , पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी और  खटिया से लग गया , शरीर में शक्ति जाती रही,  जो जहाँ,  जैसा बताता  ,वही करते,  वही ले भी जाते, लेकिन आराम नहीं मिल रहा था।


एक दिन मुखिया के घर एक भिक्षुक ने भिक्षा के लिए आवाज लगाई । बहुत देर इंतजार करने के बाद मुखिया की पत्नी बाहर आई।  भिक्षुक ने विनम्रता से पूछा ..."माई देर क्यों लग गई ?"


मुखिया की पत्नी बोली ..."महाराज,  मेरे पति को असाध्य रोग है , वह  बहुत पीड़ा में है,  आप कोई उपाय बताएँ,  कोई दवा बताएँ ।"


महिला की करूण याचना पर भिक्षु ने मुखिया को देखने की इच्छा प्रकट की।


मुखिया के कमरे में जाते ही भिक्षुक ने उसकी दुर्दशा देखकर कहा ..." यह तो आपके ही किसी बुरे कर्म का फल है , किसी उच्च तपस्वी का आपने घोर अपमान किया है , यह उसी का दंड है , यह  स्वास्थ्य होगे यह मुश्किल है । "


भिक्षु मुखिया की पत्नी से पूछ रहे थे ..."क्या ऐसा कुछ किया है कभी ।"


तभी मुखिया करवट लेकर रूद्र कंठ से बोला..." महाराज,  मुझसे यह घोर पाप हुआ है,  और धीरे-धीरे उसने रूद्रा नंद के साथ की गई सारी घटना सुना दी ।"


3


बहुत देर तक भिक्षुक शांत रहे,  सोचते रहे,  फिर बोले..."  तुम्हें उन्ही  संत  को ढूंढना होगा,  वही तुम्हें क्षमा करेंगे,  तभी कुछ हो सकता है ।
"..उन्हें कहाँ तलाशें  हम "...पत्नी बोली
"....जहाँ भी हो,  जैसे भी हो , ढूंढे उन्हें और उनकी ही शरण में जाएँ"... भिक्षुक इतना  बोल कर चले गए।


मुखिया के परिवार के लोग सच्चे मन से क्षमा प्रार्थना करने लगे और हर दिशा में रुद्रा नंद को ढूंढने के लिए आदमी दौड़ा दिए  । बहुत ढूंढने पर बॉल ग्राम की पहाड़ी पर कुछ संतों ने डेरा लगा रखा है,  इसकी जानकारी मिली।


जिस दिन से भिक्षुक ने यह जानकारी दी थी,  उसी दिन से मुख्य परिवार के घरवालों  ने क्षमा प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी।  स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा था।


गाँव के लोगों ने बॉल ग्राम में रूद्रा नंद के डेरे पर सेवा देना शुरू कर दी । लेकिन रूद्रा नंद से मुलाकात नहीं हो पा रही थी । वह अपनी तपस्या में तल्लीन थे,  बहुत मिन्नतें व इंतजार के बाद रूद्रा नंद संत के दर्शन हुए।


ग्राम वासियों ने अपने व मुखिया के घोर अपराध के लिए  क्षमा  मांगी तथा अपने साथ नारी ग्राम वापस चलने का ग्राम वासियों ने बहुत आग्रह किया।


रूद्रा नंद शांत चित्त , सांसारिक कष्टों की परिधि से ऊपर अपने में मगन थे , उन्होंने ग्राम वासियों के आग्रह को नम्रता से ठुकराते हुए कहा..." मैं किसी से नाराज नहीं हूँ, मैं यहाँ अति प्रसन्न हूँ,  प्रभु की भक्ति में लीन , मुझे दुनियादारी से दूर रखें और आप सब लोग वापस अपने गाँव जाए ,मुखिया (नंबरदार) के रोग मुक्ति के लिए प्रभु से प्रार्थना करूँगा।"


ग्राम वासी दुखी मन से वापस लौट आये और नंबरदार को सारा किस्सा सुना दिया। मुखिया  वह ठीक होने लगा था और उसे लगने लगा था कि जब से भिक्षुक के बताये अनुसार क्षमा प्रार्थना से ही उसके स्वास्थ्य में सुधार आया है।


मैं ही  जाकर रूद्रा नंद संत को वापस गाँव लाऊगा।  यह दृढ़ संकल्प ले वह रूद्र नंद  के डेरे पर जाने की तैयारी करने लगे।  गया। गाँव के कुछ लोगों के साथ मुखिया आश्रम पहुँचे और  तन, मन , धन से आश्रम की सेवा करने लगे।  यहाँ आए उन्हें 11 दिन हो गए थे , पूरी श्रद्धा भाव से डेरे  का काम देखते और प्रभु से क्षमा करने की प्रार्थना के साथ वापस गाँव चलने का आग्रह लगातार करते रहते।


11 वे दिन रुद्रा नंद जी को लगा  कि यह ईश्वर का सच्चा भक्त हो गया है , और इसकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए।  सेवक व  गायों सहित गाँव की तरफ चल दिए , छः वर्ष हो चुके थे,  नारी ग्राम को छोड़ें,  उसी जगह, पहुंचे जहाँ पहले भी डेरा डाला था। वही बरगद के पांच पेड, और आवले का वृक्ष वैसे ही खडे थे मानो रूद्रा नंद के इन्तज़ार में है , मन्द पवन बह रही थी । पूरा वातावरण आनन्द में झूम रहा था । ग्राम वासी उत्साह में सारी व्यवस्था कर रहे थे। सारी व्यवस्था कर उसी धुना को कुरेद ,  तो देखा  अग्नि यथावत ही थी कितने मौसम आये गये लेकिन अग्नि वही की वही ,  मानो  रूद्रा नंद का इन्तजार कर रही हो ...अदभूत ..यह ग्राम वासियों के लिए आश्चर्य व कौतूहल का समागम था । जय कारा से सारा वातावरण गुंजायमान हो रहा था ।


अदभुत नजारा ,  चारों तरफ मंत्रों का उच्चारण और भक्ति की पावन गंगा बहने लगी , गाय स्वतंत्र घूमती और सांय काल  वापस अपनी जगह आ जाती थी  । दिनों  दिन लोगों की संख्या बढ़ने लगी और पूरे क्षेत्र में श्रद्धा का केंद्र बन गया रूद्रा नंद बाबा का डेरा।


4


एक दिन जब बाबा रूद्रा नंद रात्रि के समय ध्यान में ईश्वर की शरण में थे , तभी उन्हें  दिव्य शक्ति का आभास हुआ और झंकार सी सुनाई दी , उन्हें लगा  , शायद बाहर से आवाज आ रही है , ध्यन न देते हुए  पुनः ध्यान मग्न हो गए ,  लेकिन यह झंकार  सा स्वर फिर सुनाई दिया । उन्होंने अपने नेत्र खोले, देखा,  कोई नहीं था , उसी समय उन्हें आवाज सुनाई दी ,  जिस तरफ से उन्हें लगा आवाज आ रही है वह उसी तरफ बढ़े , यह दिशा  उन 5 पीपल के पेड़ों की तरफ जाती थी।


पेड़ों के पास उन्हें दिव्य ज्योति नजर आने लगी,  वह भाव विभोर हो प्रणाम करके,  नतमस्तक हो गए, अपने को धन्य मानते हुए उन्होंने , अपने लिए हाथ जोड़कर आदेश मांगा.." हे ,  महान शक्तियाँ ,  मेरे लायक सेवा बताएं ।"


एक पीपल के पेड़ से ध्वनि आई...." तुम कौन हो ?"
दूसरी ध्वनि...'कहाँ से आए ?"
तीसरी ध्वनि..." क्यों आए , और तुम हो कौन ? यह  पवित्र क्षेत्र हमारा है। "


दिव्य शक्तियों को सब कुछ ज्ञात होता है,  लेकिन यह सवाल रूद्रा नंद से करने का कारण उन शक्तियों का मौजूद होना प्रमाणित करना  ही होगा । रूद्रा नंद  बाबा तो हाथ जोड़े खड़े रहे । उस तेज ऊर्जा और उस संगम में लीन ।  अदभूत अनुभव ।


कुछ देर बाद वहीं से पुनः एक आवाज आई ..." इस  जगह पर हमने तपस्या की है,  यह बहुत पवित्र जगह है,  मेरा नाम  भवानीगिरि  सन्यासी है, मैं इन चारों का गुरु हूँ, यहाँ पर हजारों वर्ष पहले,  जब पांडव स्वर्गारोहण के लिए जा रहे थे,  तब इसी जगह कुछ समय ठहरे थे,  महान तपस्वीयों की चरण धूल  में बैठकर , हम पांचों ने,  कलयुग के समागम से पहले,  तपस्या पर बैठकर , जीवित समाधि लेने के बाद,  पांच पीपल  के वृक्ष के रूप में यहाँ उपस्थित हैं , हमारे रहते कोई यहाँ नहीं रह सकता , अतः तुम यहाँ से चले जाओ।"


रुद्रा नंद बाबा तब तक यह समझ चुके थे कि वह  परम पवित्र ज्योति के सामने है और यहाँ से कहीं  नहीं जाना  है, मेरी भक्ति,  मेरी साधना का ही फल है कि दिव्य ज्योति के दर्शन हुए।


रूद्र नंद बाबा ने विनम्रता पूर्वक अपनी शरण में रहने का आग्रह किया । उन्होंने वह जगह और उस परम पूज्य ज्योतिपुंज को छोड़कर जाने से मना ही नहीं किया बल्कि तमाम उम्र सेवा करने का आग्रह कर लिया।



5.


रुद्रा नंद बाबा की भक्ति और उनकी तपस्या तो वैसे भी पावन थी , वरना इतने दिनों उस जगह कैसे रुकते , विधि का विधान ही था कि पुनः उस जगह वह वापस आए थे।


पीपल के वृक्ष से आवाज आई ..."ठीक है,  यहांँ रहो,  लेकिन आज का दिन श्रावण मास के प्रथम मंगलवार का है , तुम्हें प्रतिवर्ष यह दिन अश्वत्थ रूप में मनाना होगा । यहाँ मंत्रों का जाप तथा अश्वत्थ( ब्रह्मा जी) की पूजा के साथ ब्रह्मा जी को रोट तथा ढाई मीटर कपड़े का लंगोट चढ़ा कर,  उसमें चुरी का प्रसाद बांधा जाए और चुरी का ही प्रसाद बांटा जाये। पांच बातों का ध्यान रखा जाए , धुना  सदा जलता रहे,  भंडारा रोज चले,  पवित्र मन से पूजा,  मंत्रों का जाप,  जनकल्याण के कार्यों  हो, यह कार्य पूर्ण भक्ति भाव से होते रहे तो,... हम वरदान देते हैं कि,  हम पांच पीपल के वृक्षों का परिक्रमा करने पर , सर्पदंश व मस्तिष्क रोगी व्यक्ति किसी भी रोग से ग्रसित होगा , ठीक हो जाएगा ।" ..दिव्य ज्योति इतना कहकर लीन हो गई ।


जिस दिन यह दिव्य  दर्शन हुए , उसके तीसरे ही दिन भीष्म पूर्णिमा थी,  उसी दिन से सदाव्रत  खिचड़ी और मन्नी के  भोग से   पूजन शुरू कर दिया गया।


एक सौ पचास वर्षों से यह लंगर चल रहा है , रोगी और दुखी जनमानस के साथ श्रद्धालु आने लगे और स्वास्थ्य लाभ पाने लगे,  चारों तरफ प्रसिद्धि फैलने लगी,  जनसमूह उमड़ने लगा ,  श्रद्धा का समागम होने लगा, जय  जय रुद्रा नंद बाबा की....जय.....।


हमारे तो  भाग्य खुल गए , हमने दर्शन कर,  उस परम शांति का अनुभव किया , जिसके लिए हम बेचैन थे और सबसे बड़ी बात मेरे गले में दस वर्षों से एक गुठली थी जो सामने ही दिखती थी,  मैंने वहाँ की भभूति लगाई और मैं स्वास्थ्य हूँ... हमारी यात्रा सफल रही ....जय रूद्रा नंद बाबा की जय.....।


 



                                          अंजना छलोत्रे
                                   जी- 48, फॉरच्यून ग्लोरी 
                                 ई-8, एक्सटेंशन बाबडिया कला
                                  भोपाल (म. प्र.) 462039