ग़ज़ल

 


ग़ज़ल


 


फितरत से अपनी दूर सयाने नहीं गये,
रूठे थे वो हम उनको मनाने  नहीं गये।


उस रात की क्या बात थी हमने न कुछ  कहा,
हम अपनी ठहर ज़िद पे उन को झुकाने  नहीं गये।


देखे थे ख़्वाब पार नदी के बसायें घर ,
बहती नदी के फिर भी मुहाने नहीं गये।


मुद्दत के बाद फिर से  हुई उनसे गुफ़्तगू,
बैठे मिले प दर्द जगाने नहीं गये ।


कितना पुकारते हैं उन्हें हम भी अदब से ,
नखरे तो उनके हम भी उठाने नहीं गये।


हर बात का है वक्त मुकर्रर जहान में ,
बेवक्त के वो उनके बहाने नहीं गये।


इक उम्र फकत शौक से गुजार दी 'सवि',
खुद्दारियों पे चोट ही खाने नहीं गए।